कुछ अनकही


मधुशाला

माँ को भूल सकता हूँ मै मधुबाला को नहीं,
मंदिर माजिद का रास्ता छोड़ सकता हूँ 
मधुशाला का नहीं।
माँ

अपनी महबूबा के लिए जो आशिक अपनी जान दे देते है,
ये एक अजीब सोच होती है।
महबूबा तो कब्र पर दो फूल चढ़ाकर चली गयी,
पर माँ तो जिन्दंगी भर रोती है।
बेबफा 
दो बूंद बारिश की  काफी है,
तपती धरा की तपन को कम करने के लिए।
तेरे दो आंसूं काफी थे बेबफा,
मेरे कफन को नम करने के लिए।

ख्वाबों में
जिन्हें अक्सर हम ख्वाबों में देखा करते थे,
जिन्हें ढूँढने में हमने अपनी सारी जिन्दगी लगा दी,
पता चला की वह हमारे पड़ोस में रहते है।


यादें दफन
वक्त के साथ दफन हो गयी थी उनकी यादें,
अब तो हम भी नहीं किया करते है उनके लिए फरियादें।
अक्सर दोस्त ही छेड़ा करते है हमारे जख्मो को,
वरना हम तो भुला बैठे थे उनके लिए लिखे हर नगमो को।

कलम
इश्क का दर्द तो हमारे दिल में भी बहुत है गालिब,
पर कमबक्त कोई हमें कलम ही नहीं देता।

बगावत
अगर मोहबत की है यारों तो दुनिया से बगावत करो,
यूँ तन्हाईयों में रहकर उनकी यादों में डूबने से कुछ नहीं होता।
गम अगर मोहबत का भुलाना है यारों,
तो जाम को हलक में उतारो,
यूँ महखाने में जाकर बोतल सूंघने से कुछ नहीं होता।

पराया
फूलों को छूने से पहले काँटों को बतया करो,
सपनो के महलो को यूँ फूक से न उड़या करो।
जब तुम अचानक तुम किसी मोड़ पर मिलती हो,
तो यूँ नजरे मत झुकाया करो।
हमारे दोस्त क्या सोचेंगे हमारे बारे में,
उनके समने हमें यूँ पराया मत बनाया  करो।

सचे दोस्त
सचे दोस्त तो हमारे वह थे,
जो हमारी  मोहबत के दुश्मन थे,
काश हमने उनके इशारे समझ लिए होते,
तो आज हम इस हाल में नहीं होते।

हमारा क्या
यूँ तन्हाईयों में तुम रोया मत करो,
हमरी यादों में हमेशा खोया मत करो।
हमारा क्या हमतो अपनी आंखें चार कहीं और कर लेंगे,
हमारे लिए यूँ बेकरार होया मत करो।

टूटते सपने

ये तो सपने थे ये तो टूटने ही थे,
जो रिश्ते कमसिन उम्र में मिले थे वह तो छूटने ही थे।
अब तो हकीकत को समझो मेरे यार,
सच्ची मोहबत तुमरे सामने खड़ी है इसे यूँ मत ठुकराओ,
भूल कर  अपने अतीत को आओ अब गले लग जाओ।

बेचारा दिल
अरे ये हसीनों तुम मिटटी के बने दिलों से खेला करो,
क्योंकि अगर वह टूट भी जाओं तो उन्हें कोई दर्द नहीं होता,
वरना आज मुझ जैसा बेचारा दिल टूटने पर यूँ नहीं रोता।

हाल
एक वही  है जो हमारा हाल पूछा करते है,
वरना ये दुनिया तो हमें बेहाल करने को बेकरार  है,
बस हर बार हमारी अर्थी को कंधा देने को तैयार है।


मंजिल
जिन्दगी में हर मोड़ पर मै टूटा हूँ,
सब के साथ चला मंजिल के और,
फिर भी पीछे छूटा हूँ।
जब- जब भी मैंने आशाओं के किनारों को जोड़ा है,
तब-तब मुझे निराशाओं की दीवारों ने तोड़ा है।
मै फिर उठूँगा,
फिर मंजिल की और चलूँगा,
तुम चलो दोस्तों !
मै धीरे- धीरे आकर तुम्हें मंजिल पर ही मिलूंग

खफा जिन्दगी
जिन्दगी खफा क्या हुयी मुझसे,
अब तो आईना भी मुहूँ मोड़ने लगा।
बस माँ की दुआएँ साथ है,
वरना साया भी साथ छोड़ने लगा।

भगवान
मै पत्थर था, पत्थर ही रहने देता,
मुझे की क्या जरुरत थी।
खुद तो तेरी अंतरात्मा में था,
उसे मंदिर में खोजने की क्या जरुरत थी।

कौन करेगा
तुफानो में दीया तो जल लेंगे हम, पर उसमे ओट कौन करेगा ?
शराब कबाब की महफिल जमानी हमें आती नहीं है
सोच रहा था इस बार चुनाव में खड़ा हो जाऊं
पर मुझे वोट कौन करेगा?


माँ तो माँ है
माँ अकसर जब भूखी होती थी,
तो मिर्च खा लेती थी
लोग समझते थे माँ खाना का के आई है

प्रदीप रावत "खुदेड़"


उजाले की रात


उजाले की इस रात में पडोसी का घर तम से क्यों घिरा है
खुशी के इस पर्व में वह आज बेजान गम में क्यों पड़ा है
चलो एक दीया आस का उसके आँगन में भी जलाये
उसकी इस खामोश जिन्दगी को रोशन हम बनाये

प्रदीप रावत "खुदेड़"

बसंत आ गया




सर्दियां के आँगन में खुशीयों के फूल मुरझा रहे थे,
जिंदगी के धगों को जितना सुलझाते,
वर्फीली हवा के थपेड़े उन्हें और उलझा रहे थे।

कंबल के अन्दर से जिंदगी झाँक रही थी,
कभी तो मिलेगा सकून, इस आस में,
कच्ची धुप को ताँक रही थी।
कुहासे की दिवारें रास्ता रोककर खड़ी थी,
भीगी हुयी लकड़ियाँ चुल्हे पर विरान पड़ी थी।

बस कट जाएँ लम्बी-लम्बी रातें,
बस फंट जाएँ सूरज से रोशनी की सौगातें।
पतझड़ ऐसा कि जिंदगी के पत्ते बृक्षों से टूट रहे थे,
हवाओं मे इस कदर नमी थी,
कि एक दूसरे के हाथों से हाथ छूट रहे थे।

बसंत आयेगा! कब आयेगा ? कैसे आयेगा ?
सब राह देख रहे थे।
एक दिन अचानक घर में खुशी छा गयी, हर्ष छा गया,
माँ आ गयी बसंत आ गया।

प्रदीप रावत "खुदेड़"

तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?


मंडवे की रोटी तूने खायी नहीं है "खुदेड़" ।
कछ्बोळी तूने कभी चबाई नहीं है ।।
'बल' और 'ठैरा' तू भाषा में लगता नहीं है।
उचेणु तू अब चढ़ाता नहीं है।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

मंडाण तू नाचता नहीं है "खुदेड़" !
देवता तू पूजता नहीं है।।
काफल के हडले तू चबाता नहीं है!!
मोटा आनाज अब तू पचाता नहीं है।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

विवाह में धोती पहनता नहीं है "खुदेड़" !!!
पहाड़ी हिसाब से तू रहता नहीं है।।
साहपाटा विवाह में तू ले जाता नहीं!!
पहाड़ी भोजन तू बनाता नहीं।।
पिछोड़ा तू महिलाओं को ओढ़ता नहीं!!
रस्म कंगन की तू तोड़ता नहीं।।
काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

बारात में ढोल-दमो तेरे आते नहीं है "खुदेड़" !!
मांगल, गाळी अब शादी में तेरी गाते नहीं है।।
पितगा अब तू बनाता नहीं है!!
बेदी अब तू सजाता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

भाषा तू बोलता नहीं है "खुदेड़" !!
अपनों के अत्यचार पर खून तेरा खौलता नहीं।।
इमानदारी तुझमे अब दिखती नहीं!!
मुजफ्फरनगर कृत्य की पीड़ा तुझे चुभती नहीं।।
न्याय के लिए तू लड़ता नहीं!!
पहाड़ का विकास तू करता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

संकट चौद्सी का ब्रत तू मनाता नहीं "खुदेड़" !!
हरेला में जौ तू उगता नहीं।।
फूल देई में फूलों से देळी तू सजाता नहीं!!
पंचमी में गीत तू गाता नहीं।।
उत्रेणी में खिचड़ी तू पकाता नहीं!!
बग्वाल इगास तू मनाता नहीं।।
भेला तू खेलता नहीं!!
पहाड़ के चार दुःख तू झेलता नहीं।।
तू काहे का पहाड़ी बे "खुदेड़" ?

कब तक ये झूठा पहाड़ी नाम का तगमा, 
लेकर घूमता रहेगा।
पहाड़ का सब कुछ छोड़कर, 
खुद को पहाड़ी कहता रहेगा।।
है बे "खुदेड़"

तूने तू अन्य लोगों की तरह,
पहाड़ को पिकनिक स्पॉट बनाया है "खुदेड़" !!
बस चंद रोज आराम के लिए यहाँ बिताया है।।
अगर खुद को पहाड़ी कहता है तू!!
तो पहाड़ी संस्कृति, भेषभूषा, भाषा बोली,
खानपान, और तीज त्यौहार को भी अपनाना होगा।
वरना खुद को पहाड़ी नहीं कहना होगा।
समझा बे "खुदेड़"

प्रदीप रावत "खुदेड़"
25/09/2017

यूँ कब तक देश को जलाते रहोगे,

यूँ कब तक देश को जलाते रहोगे,
अंध आस्था, अंधश्रद्धा, अंधभक्ति,
के नाम पर कब तक आग लगाते रहोगे।।

कभी अराक्षण के नाम पर हिंसा करते हो,
कभी एक अपराधी के पक्ष में लड़ते हो।
कभी धर्म के नाम पर बेगुनाओ के काल बन जाते हो,
ढोंगियो के लिए भी राजनितिक ढाल बन जाते हो।।

क्या ये देश तुम्हारा नहीं है?
क्या ये सम्पति तुम्हारी नहीं है?
अपने बच्चो को क्यों अंधकार में धकेल रहे हो,
अपने कल को क्यों शुन्यकार में खदेड़ रहे हो।।

कभी मुगलों ने लुटा, कभी सालो लुटा गोरो ने,
आज लुटा है इस देश को खुद के प्यारे छोरो ने।
आज कुछ औरते भी पाप के पक्ष में खड़ी है,
एक अपराधी के लिए जान लेने पर तुली है।

गुस्सा इस बात का होना था !!
कि सजा क्यों नहीं मिली थी, अपराधी को अब तक,
धर्म चोला पहनकर लूटेंगे स्त्री की इज्जत ये कब तक।
जिस के साथ ये अन्यायी हुआ क्या उस पर बीती होगी,
राजनितिक सर्क्षित अपराधी से ये लड़ाई कैसे जीती होगी।

प्रदीप रावत "खुदेड"
26/08/2017

कुछ अनकही

मधुशाला माँ को भूल सकता हूँ मै मधुबाला को नहीं, मंदिर माजिद का रास्ता छोड़ सकता हूँ  मधुशाला का नहीं। माँ अपनी महबूबा ...